∗ नारी की इच्छा। ∗
असंभव के विरुद्ध:- “नारी की इच्छा” हम समझ क्यों नहीं पाते?
“तुम तो नदी की धारा के साथ दौड़ रहे हो।
उस सुख को कैसे समझोगे, जो हमें नदी को देखकर मिलता है।”
– रामधारी सिंह ‘दिनकर’
मैं जब बच्ची थी।
पेड़ पर चढ़ने को मचलती, मां डांटती
कहती ये लड़कों जैसी गलत मस्तियां हैं।
उछलना, कूदना, दौड़ना, चढ़ना, गिरना,
उड़ना।
पिता हंसते, शाम को कंधे पर बिठाकर ले जाते।
अमरूद के पेड़ पर चढ़ना सिखाते, समझाते – शरीर
सब कुछ कर सकता है।
अगर “तुम्हारी इच्छा हो”
मैं जब कुछ बड़ी हुई।
दादी को जैसे बस एक ही काम था।
काम सीख लो, कल ससुराल में बदनामी होगी।
दादा न जाने क्या-क्या खिलाते,
मेरे खेलने- खाने के दिन होने का विश्वास दिलाते।
बस करो। कोशिश करो। देखो। सुनो। करो।
नहीं आया तो फिर करो।
सब होगा – अगर “तुम्हारी इच्छा हो”।
एक नाज़ुक समय आया।
हर बात पर रोकना, हर काम पर पूछना, हर साथ
पर संदेह।
जीवन लगने लगा बोझ, अपने लगने लगे फांस घुटन।
छटपटाहट। घबराहट।
कहां गए वो खेलने-खाने के दिन?
पिता का लाड़, लगने लगा लताड़। भाई की
शरारत, देने लगी हरारत।
“मेरी इच्छा”? क्यों नहीं चलती?
मैं कहां जाती हूं, कब लौटती हूं, क्या पहनकर
जाती हूं,
किसके साथ बैठती हूं, किससे हंसती-बोलती
हूं।
इस पर घरवाले पहरा बिठा देना चाहते हैं?
आखिर क्यों?
“मेरी इच्छा”का क्या? और वे होते कौन हैं?
और समझते क्यों नहीं
कि मैं बड़ी हो चुकी हूं। पढ़ी-लिखी हूं।
अपना अच्छा-बुरा समझती हूं।
बेटा, जमाना ठीक नहीं है। आजकल किसी
का भरोसा नहीं।
कॉलेज के बाद सीधे घर आना। दिल्ली का पता है न?
क्यों? “मेरी इच्छा”का क्या?
लड़की हूं न, इसलिए इतनी रोक।
यह उम्र ही ऐसी होती है। बंधन तोड़ने की उग्र इच्छा होती है।
बंधन।
पढ़ाई करो। और पढ़ो। शादी के बाद,
आत्मनिर्भर रहना चाहिए।
अपने पैरों पर खड़े होना, संसार की सबसे बड़ी
चुनौती, सबसे अच्छा उपाय।
“मेरी इच्छा”क्या है?
उनके इस प्रश्न ने मानो मुझे नींद से जगाया
आपको, किसी को “मेरी इच्छा”का क्या?
उन्होंने लाड़ से हाथ फेरा। बच्ची है। बड़ी कब होगी।
कल शादी होगी। कितनी जिम्मेदारियां निभानी हैं।
अरे…। मैं तो खुश हुई थी कि आज “मेरी इच्छा” जानी जाएगी।
ये तो फिर।
और एक पल में मैं बच्ची हूं। दूसरे ही पल में मेरी शादी।
मां, कभी तो मुझे मेरी इच्छा से कुछ करने दो…
सबको तुम पर नाज़ है बच्चा।
तो इतने बंधन क्यों है?
तू नहीं समझेगी। ये प्यार होता है!
फिर नैराश्य भरी बातें।
अब शादी के बाद बंधन टूटने चाहिए
या कि अपने पैरों पर खड़े रहने वाली नई बेड़ियों की चिंता करें?
मैं तो ढेर सारी मस्ती करना चाहती हूं। ढेर सारे दोस्त बनाना चाहती हूं,आज़ाद होना चाहती हूं।
ये हैं कि फिर फंसाना चाहते हैं। होते कौन हैं,ये?
“मेरी इच्छा”।
रात को मां से मुलाकात हुई, कई दिनों बाद, उन्हें ध्यान से देखा
पापा की तबीयत को लेकर, भारी चिंता में थी वह
भाई की नौकरी का किस्सा, कई तरह की घर की समस्याएं
लेकिन मुझे न जाने क्या-क्या सिखाने की कोशिश करती रहीं
मैं अपनी ज़िंदगी जीना चाहती हूं। मैं शादी करना ही न चाहूं …
पागल हो गई हो क्या – ऐसे गन्दे शब्द …
हम तो, संगीत में क्या होगा, जोड़ा कैसा होगा और फेरे कहां करवाएंगे
यह सोच भी चुके हैं।
ये क्या कह रहे हैं।
आंखों में आंसू, गालों पर गढ्ढे और ओठों पर
थरथराहट
घर पर हुआ निर्णय।
लेकिन मैं शादी नहीं करूंगी।
फिर बना दृश्य विचित्र
झड़प। समझ। सलाह। तड़प।
तय हुआ जो वे चाहते थे।
“मेरी इच्छा”का क्या?
पढ़ाई का चक्र चलता ही रहता है।
मैंने वहां पूरी की। एक दूर की बहन थी उसने यहां,
चिंता का चक्र भी निरन्तर है,
बड़ी होती लड़कियों पर चलता ही रहता है।
मैं इतना पढ़ ली कि लड़का मिलना मुश्किल।
वो बहन पढ़ी। लेकिन लड़के वालों ने कहा और पढ़ी होती तो कमाती।
नानी के बगल वाले घर में थी एक लड़की। पढ़ न सकी।
सबको है डर। कौन होगा इसका वर।
पिता कहते, होगा सब अच्छा । हुआ ।
चाचा जानते थे मिलेगा समझदार। मिला ।
पढ़ न सकने का अर्थ नहीं है अनपढ़। उसके दूल्हे ने
कहा।
घरवालों का सपना हुआ साकार। था उनका
आधार :
बुद्धि चलानी है। विद्या चलेगी पीछे-पीछे।
दक्षता। क्षमता। योग्यता। लड़कियों में गुण
होते ही हैं, बहुत अच्छा चलेगा
अगर “तुम्हारी इच्छा”हो।
और लोग? समाज? पुरुष? वो क्या समझते हैं मुझे?
कि वो मेरे साथ दुर्व्यवहार करेंगे? अत्याचार
करेंगे?
नहीं मैं उनसे भयभीत, नहीं मैं उनसे निराश
नहीं मेरा किसी पुरुष में विश्वास।
शिक्षा ली है मैंने घटनाओं से। सीखा है मैंने
दुर्घटनाओं से।
रहा होगा सफल दादी, नानी, मां, दीदी
का जीवन
मैं उसे कहूंगी विफल, क्योंकि संभवत: वे परम्परा
ही निभा रही थीं
निश्चित ही वे जिम्मेदारियां ढो रही थीं
वे “स्वयं’ कुछ, क्या थीं?
पिता, भाई, श्वसुर, पति और परिवार इन्हीं से
उनके विचारों का आकार
सहानुभूति पर जीती रहीं वे, प्रेम बांटती,
करती रहीं वे।
पुरुष तो पुरुष, बच्चों से भी डरती रहीं वे।
मैं अपनी इच्छा से जीऊंगी, क्योंकि मैं “अलग’
हूं, क्योंकि मुझे चुनना आता है
क्योंकि मैं ब्रह्मांड हूं,
मैं यूनिवर्स हूं।
मेरा शरीर। मेरा दिमाग। मेरी इच्छा। माय चॉइस।
“मेरी इच्छा सब समझेंगे, असंभव है। किन्तु समझनी ही होगी।”
क्योंकि संसार की जननी, जब एक मुट्ठी
भर पापियों से त्रस्त होकर, रुष्ट होकर,
कुंठित होकर, क्रुद्ध होकर परिवार की
जगह “मैं’ को चुनने की घोषणा करने पर
विवश हो जाए, तो हमारे पालन-पोषण
और संस्कार देने में भारी कमी हो गई है।
वह जीवन के सबसे सुंदर भाव “प्रेम” को भी
ठुकरा रही है। यह सबसे बड़ी चिंता है।
क्योंकि नारी ने ही हमें प्रेम सिखाया है।
©- (लेखक – कल्पेश याग्निक) दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।
-संदीप वर्मा – बीकानेर (राज.)
संदीप वर्मा।
Post share by Mr. Sandeep Verma, from Bikaner (Raj.).
We are grateful to Mr. Sandeep Verma, for sharing inspirational “Woman’s desire” Hindi Thoughts.
We wish you a great & bright future. Thanks a lot dear Sandeep Verma.
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